हम खुशनसीब हैं जो मां ताराचण्डी की धरती सासाराम ने ऐसे लाल को पैदा किया था । नाटक की अपनी रेडियो श्रृंखला की लगभग 400 कड़ियों से लोहा सिंह को जीवंत करने वाले सासाराम के रामेश्वर सिंह ‘कश्यप’ (Rameshwar Singh Kashyap) को असली नाम से कम जासूसी और बहादुरी के प्रतीक ‘शेरलॉक होम्स’ और ‘जेम्स बांड’ की तरह उनकी कृति के नाम से ही जाना जाता था । राष्ट्रीय स्तर तक से प्रसारित उनके कालजयी डायलॉग आज भी लोग दोहराते हैं ।
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रामेश्वर सिंह कश्यप का जन्मदिवस
प्रो. रामेश्वर सिंह कश्यप का जन्म आज ही के दिन, यानी 16 अगस्त सन् 1927 को सासाराम के सेमरा गांव में हुआ था ।
रामेश्वर सिंह कश्यप का परिवार
रामेश्वर सिंह कश्यप के पिता जी का नाम राय बहादुर जानकी था । वह अंग्रेजी सरकार में डीएसपी थें । जबकि रामेश्वर सिंह कश्यप के माता जी का नाम रामसखी देवी था ।
रामेश्वर सिंह कश्यप का प्रारंभिक जीवन
मुंगेर जिला के नवगछिया से रामेश्वर सिंह कश्यप ने प्रारम्भिक शिक्षा शुरू किया । मुंगेर जिला के ही टाउन स्कूल से उन्होंने मैट्रिक भी पास किया । 1948 में उन्होंने पटना के बीएन कॉलेज से बी.ए किया । सन् 1950 में पटना के बीएन कालेज ( बिहार नेशनल कॉलेज) से उन्होंने हिन्दी से एम॰ए॰ किया और उसी वर्ष पटना विश्वविद्यालय में हिन्दी के व्याख्याता बन गए ।
सासाराम के एसपी जैन कॉलेज में प्राचार्य बनें रामेश्वर सिंह कश्यप
पिता के अनुरोध पर 1968 में पटना के साहित्यिक माहौल को छोड़कर सासाराम आना पड़ा और रामेश्वर सिंह कश्यप सासाराम के प्रतिष्ठित एस पी जैन कॉलेज यानी शान्ति प्रसाद कॉलेज में प्राचार्य बने। लेकिन साहित्यिक समाज से दूर होने का उन्हें काफी मलाल था ।
1962 का भारत चीन युद्ध और लोहा सिंह
1962 की भारत-चीन लड़ाई के फौजी लोहा सिंह (प्रोफेसर रामेश्वर सिंह ‘कश्यप’) जब अपनी फौजी और भोजपुरी मिश्रित हिंदी में अपनी पत्नी ‘खदेरन को मदर’ और अपने मित्र ‘फाटक बाबा’ (पाठक बाबा) को काबुल का मोर्चा की कहानी सुनाते थे, तो श्रोता कभी हंसते-हंसते लोट-पोट हो जाते थे तो कभी गंभीर और सावधान। कहानी सुनते समय उन्हें लगता था कि बाल विवाह, छूआछूत, धार्मिक विकृतियों पर किया जानेवाला लोहा सिंह का व्यंग्य कहीं उन्हीं पर तो नहीं !
लोहा सिंह के आवाज से चीन डरता था
साठ के दशक (1962) में हुए भारत – चीन युद्ध के वक्त पटना रेडियो स्टेशन से प्रसारित होने वाले लोहा सिंह नाटक की गूंज चीन तक पहुंची थी। जिसे सुन कर चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री को कहने पर मजबूर होना पड़ा था कि ” जवाहरलाल ने लोहा सिंह नामक एक भैसा पाल रखा है, जो चीन के दीवार में सिंघ मारता रहता है”
भारत चीन युद्ध और फौजी लोहा सिंह का “खदेरन क़ो मदर”
‘जिद त हम धरबे करेगा। करेगा त हम खूब जिद धरेगा, अ तुमको घामा में डबल मारच कराएगा.. ठेठ भोजपुरी अंदाज में मंच पर इसी तरह का संवाद भारत-चीन युद्ध के फौजी लोहा सिंह । जो भारतीय फौज से रिटायर होकर गांव में सामाजिक कार्यों में लगा रहता है। तुलसी चौरा के पास पूजा-अर्चना करती उसकी पत्नी व खदेरन की माता नजर आती हैं ।
तभी लोहा मंच पर प्रवेश करता है। लोहा सिंह तेज आवाज में खदेरन की मां.. की रट लगाता है। तभी खदेरन की मां कहती है कि आ मार बढ़नी रे .. पूजा कइल गरगट कइले रहेलन। एको घड़ी चैन से ना रहे देस जब देख खदेरन की मदर, खदेरन की मदर, सुगा लेला रटल रहेलन । इसी प्रसंग से मशहूर नाटक “लोहा सिंह” का आरंभ होता है ।
साहित्य एवं कला के क्षेत्र में रामेश्वर सिंह कश्यप का योगदान
कश्यप जी इप्टा यानि भारतीय जन नाट्य संघ से जुड़े नाटककार, निर्देशक और अभिनेता तीनों थे। ऐसा संयोग बहुत कम होता है। बुलबुले, पंचर (बाद में बेकारी का इलाज संग्रह), बस्तियां जला दो, रॉबर्ट, आखिरी रात, कैलेंडर का चक्कर, सपना, रात की बात, अंतिम श्रृंगार, बिल्ली, चाणक्य संस्कृति का दफ्तर, स्वर्ण रेखा कायापलट, उलटफेर एवं दर्जनों उत्कृष्ट एकांकियां, कहानियां तथा निबंधों के साथ लोहा सिंह नाटक श्रृंखला में प्रमुख थे।
लोहा सिंह को अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुआ
लोहा सिंह नाटक की लोकप्रियता से अत्यंत प्रभावित होकर यूनेस्को द्वारा प्रकाशित ‘रूरल ब्रॉडकास्टर’ नामक अंतरराष्ट्रीय संस्था द्वारा लोहा सिंह नाटक के बारे में लिखने के लिए कश्यपजी से अनुरोध किया गया ।
यूनेस्को ने ‘रूरल ब्रॉडकास्टर’ नामक अंतरराष्ट्रीय संस्था से कश्यप जी का 1960 में एक लेख प्रकशित किया था- ‘अबाउट लोहा सिंह’ ।
कई देश भारत सरकार से कैसेट मांगते थें
सुनील बादल ने अपने शोध में बताया है कि आलोचक डॉक्टर निशांतकेतु ने लिखा था- लंदन काउंटी काउन्सिल, नेपाल,जोहानेसबर्ग और मॉरीशस की सरकारों की मांग पर भारत सरकार इसके कैसेट्स भेजती रही है ।
राष्ट्रीय स्तर पर छाए रहें रामेश्वर सिंह कश्यप
इनका पटना, दिल्ली, वाराणसी, मुंबई, लखनऊ जैसे कला मर्मज्ञ नगरों में सफल मंचन हुआ और इन्हें पुरस्कार भी मिले। पंचर और आखिरी रात को अखिल भारतीय नाट्य प्रतियोगिताओं में प्रथम स्थान भी मिले।
पद्मश्री से सम्मानित हुए रामेश्वर सिंह कश्यप
बिहार के सासाराम से रामेश्वर सिंह कश्यप को भारत सरकार द्वारा सन् 1991 में साहित्य में उत्कृष्ट योगदान के लिए पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया ।
अन्य पुरस्कारों से भी सम्मानित हुए रामेश्वर सिंह कश्यप
भारत सरकार के पद्मश्री के अलावा रामेश्वर सिंह कश्यप को बिहार गौरव,बिहार रत्न आदि से सम्मानित किया गया था ।
फिल्मकार प्रकाश झा करते रह गए लोहा सिंह का इंतजार
सन् 1992 में फिल्मकार प्रकाश झा रामेश्वर सिंह को मनाने के लिए कई बार सासाराम आए थे । लेकिन कश्यप जी अपने कंटेंट के ओरिजनलीटी पर अडिग रहते थें, उन्हें तोड़ मरोड़ पसंद नहीं था । कश्यप जी अपनी हर रचना एक नई कलम से लिखते और उसे बक्से में रख देते थे। लगभग बीस हजार पेन उनके घर में सजाकर रखे हुए थे । फिल्मकार प्रकाश झा फिल्म के लिए उनके नाटक परिवर्त्तन के साथ लेना चाहते थे ।
रामेश्वर सिंह कश्यप उर्फ लोहा सिंह की अंतिम यात्रा
24 अक्टूबर 1992 को अचानक रामेश्वर सिंह कश्यप की मृत्यु हो गई और एक अध्याय का अंत हो गया । मृत्यु का कारण डायबेटीज ( सुगर) बताया जाता है ।
सासाराम के सपूत पद्मश्री रामेश्वर सिंह कश्यप अमर रहेंगे
लोहा सिंह ने अपने साहित्य और नाटक के जरिए देश विदेश में पहचान बनाया । वे आज हमारे बीच नहीं हैं पर उनकी कृतियों को संजो कर रखना हमारा पुनीत कर्तव्य है। साहित्य ही समाज को दिशा देने का काम करता है।
साहित्य और नाटक का समाजिक बुराइयों को दूर करने में बहुत महत्व होता है । पद्मश्री रामेश्वर प्रसाद सिंह कश्यप उर्फ लोहा सिंह की कृतियों को व्यापक स्तर पर प्रसार कर नयी पीढ़ी को साहित्य का दर्शन और उसकी रचनात्मकता का बोध कराया जा सकता है ।