ईमानदारी के मिसाल, शिक्षाविद् एवं लोकप्रिय समाजसेवी काॅमरेड रामकृत सिंह का जन्म 15 जनवरी 1935 को बिहार के शाहाबाद जिला(वर्तमान कैमूर) के एक छोटे से गांव बिड्डी में अत्यंत गरीब किसान परिवार में हुआ था। इनका पैतृक निवास सुहावल (चैनपुर) था लेकिन कुछ अप्रिय घटना के बाद इनके दादा जी स्व. रामरेखा सिंह के समय में ही पारिवारिक स्थानांतरण बिड्डी में हुआ।
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अंबेडकरवादी विचार के सिपाही Comred ramkrit singh
अम्बेडकरवादी विचारधारा से ओतप्रोत ये सेवानिवृत्त पंचायत सचिव सह तहसीलदार(पंचायती राज विभाग,बिहार सरकार), पूर्व वरिष्ठ सदस्य(लोक शिक्षा समिति,चैनपुर), संस्थापक सदस्य (सहकारिता समिति,चैनपुर), पूर्व पैक्स प्रत्याशी( जगरियां पंचायत) तथा प्रखर वक्ता हैं।
इनके पिता का नाम स्व. सरयू सिंह एवं माता का नाम स्व. जीवरानी देवी था। जब ये महज छः महीने के थे तो इनकी मां का देहांत(जून 1935) हो गया। इनका बचपन बिना मां के निर्धनता के उस कठिन परिस्थिति में गुजरा है !
पिताजी की दूसरी शादी न होने की सूरत में इनका पालन-पोषण वृद्ध दादी-मां स्व.भाग्यवानी देवी द्वारा हुआ। कभी- कभी दादी-मां के बीमार हो जाने पर खाना नहीं मिलता था तो उन्हें भूखे स्कूल जाना पड़ता था।
परिवार की ऐसी दयनीय हालत देखते हुए जब वे संस्कृत उत्क्रमित प्राथमिक विद्यालय,चैनपुर में कक्षा तीन (1948) में पढ़ते थे तभी उनकी पहली शादी हो गयी। कक्षा पांच (1950) में जाने के बाद दुर्भाग्यवश पत्नि का देहांत हो गया।
पैसों की कमी से पढ़ाई को लगा विराम
इसके बाद भी वो अध्ययनरत रहें फिर पांचवी कक्षा पास करने के बाद वे प्रखंड के इकलौते गांधी स्मारक मध्य विद्यालय, चैनपुर में कक्षा छः में दाखिला लिये लेकिन परिवार की चरमराती आर्थिक स्थिति की सूरत में महज “एक आना” शुल्क न चुका पाने के कारण आठवीं कक्षा में पढाई रुक गई।
इन्हे पढ़ाने के लिए बड़े बाऊ जी सासाराम में पोलदारी करने लगे
लेकिन इनके बडे़ पिताजी स्व.वैजनाथ सिंह(मालिक) ने कहा कि तुम अध्ययन जारी रखो मैं फीस का इंतजाम करता हूं तो वो सासाराम में पोलदारी करने लगे जिससे इनकी पढाई पुनः शुरु हो गयी और मध्य विद्यालय पास कर जब उसी साल नवनिर्मित गांधी स्मारक उच्च विद्यालय,चैनपुर में कक्षा नौ(1954) में एडमिशन लिये तभी पुनः उनकी दूसरी शादी स्व. बचानी देवी से हुई।
गांव के पहले मैट्रीकुलेट
अल्पव्यस्क अवस्था में दो बार शादी होने, प्रतिकूल सामाजिक व पारिवारिक परिस्थिति तथा लाख आर्थिक तंगी के बावजूद ‘अनलाइक अदर्स’ अपने लगन, संकल्प और जुनून के बल पर सन् 1956 में सेकेंड डिविजन से मैट्रीक परीक्षा(वर्ग-11) में उत्तीर्ण होकर अपने पूरे खानदान ही नहीं बल्कि गांव-पडो़स के पहले मैट्रीकुलेट हुए।
पढ़ाई की अहमियत को समझा
अपने क्षेत्र में इस सफलता पर मिली इज्जत और सामाजिक पहचान इनकी विराट शख्सियत के शुरुआत की शंखनाद थी। वर्तमान समय में भले हीं यह एक डिग्री मात्र है लेकिन उस जमाने में जब पढा़ई का कोई रिवाज नहीं था ग्रामीण परिवेश में वो भी अत्यंत निर्धन परिवार से मैट्रीक में “सेकेण्ड डिविजन” लाना (जब अधिकांश लोग पढ़ाई लिखाई भी नहीं करते थे) अपने आप में पीएचडी करने के बराबर था।
पंचायत के लोगों के साथ-साथ उन्हें अपने शिक्षकों श्री शंकर पांडेय(प्रधानाचार्य), मेवा सिंह तथा किशोरी सिंह(ट्यूशन टीचर) से काफी सराहना, सम्मान और आशीर्वाद मिला लेकिन वो यहीं नहीं रुकना चाहते थे, स्नातक करना चाहते थे, कानून(लाॅ) की पढा़ई करना चाहते थे परन्तु उच्च शिक्षा के लिए स्थानीय(भभुआ अनुमण्डल) काॅलेजों की नगण्यता, व्यक्तिगत-पारिवारिक जिम्मेवारी तथा बदहाल आर्थिक परिस्थिति अध्ययन को पूर्णतः ब्रेक लगा दिया।
विवशतावश् इसी शैक्षणिक योग्यता के आधार पर वे नौकरी तलाशने लगे इसी दौरान तेजी से बिगड़ती आर्थिक स्थिति की वजह से उन्हें इसी अवस्था(21वर्ष) में एक साल के लिए कमाने कलकत्ता भी जाना पडा़ तभी 1956-57 में सहकारिता विभाग में कोओपरेटिव सुपरवाइजर पद के लिए भर्ती निकली लेकिन इनकी मेरिट भ्रष्टाचार के भेट चढ़ गया ।
नौकरी मिल ही गई
सौभाग्यवश उसी साल बिहार सरकार के पंचायती राज विभाग में पंचायत सचिव के पद के लिए भर्ती निकली। अंततः 1958 में अपने अथक प्रयासों से आरा समाहरणालय में परीक्षा के बाद पंचायत सचिव के पद पर बहाल हुये और सिविल विभाग में सरकारी नौकरी करने वाले अपने गांव के पहले शख्स हुए।
गांव में प्राथमिक विद्यालय खोलवाया
उन्होंने अपने शिक्षा और व्यक्तिगत उत्थान को सिर्फ अपने तक ही सीमित नहीं रखा बल्कि नौकरी के शुरुआती समय में हीं अपने गांव में एक प्रथामिक विद्यालय की स्थापना हेतु प्रशासनिक स्तर पर पहल किया और इस प्रस्ताव को उन्होने प्रखंड पंचायत समिति के बैठक में स्वीकृत कराकर तथा ग्रामीणों के समग्र सहयोग से प्राथमिक विद्यालय, बिड्डी का शिलान्यास कराया।
जातिवाद, निरक्षरता एवं निर्धनता के दंश ने उन्हें समाज सेवा एवं शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए प्रभावित किया और उनके इस अद्भूत योगदान की वजह से गरीब, दलित और पिछडे़ ,समाज के लोग उन्हें ग्रामीण सामाजिक एवं शैक्षणिक आंदोलन के अग्रदूत तथा “आधुनिक अम्बेडकर” जैसे नामों से सम्बोधित करने लगे।
जब व्यक्ति का कद उसके पद से बडा़ होने लगे तब वह अपनी अद्वितीय ‘पर्सनालिटी’ के लिए मशहूर होने लगता है। प्रशंसक इनकी ईमानदारी, स्पष्टवादिता, निडरता, परोपकारिता, उदारता, सादगी-सहजता, सत्यवादिता तथा मानवता के कायल हैं। ग्रामीण जनता इन्हें ‘ तहसीलदार साहब’ के नाम से जानती है ये “शिक्षा का आंच” ही है कि लोग इनका नाम लेकर नहीं पुकारते हैं।
40 रूपए वेतन से घरेलू खर्च के साथ नई पीढ़ी को पढ़ाया
चालीस रुपये प्रतिमाह की सरकारी सेवा पर लगभग 20 सदस्यीय एक वृहत संयुक्त परिवार का अकेले आर्थिक वहन करते हुए अपने बेटे श्री ओमप्रकाश सिंह को इलाहाबाद विश्वविद्यालय(AU) से लाॅ पढाना तथा एक राजपत्रित पदाधिकारी(अभियोजन पदाधिकारी,गृह विभाग) बनाना अनुकरणीय एवं प्रशंसनीय है ।
समाज के प्रति भी जिम्मेवारी निभाई
इसके बावजूद की वे समाज के प्रति उतने ही जिम्मेदार थे जितना परिवार के प्रति जो सामान्यतः कम देखने को मिलता है। उनका पूरा जीवन त्याग और समर्पण से ओतप्रोत है और वो हमेशा कहते भी हैं “हम दुनिया में जो कुछ अर्जित करते हैं, उससे नहीं अपितु जो कुछ त्याग करते हैं उससे समृद्ध बनते हैं”।
अम्बेडकरवादी तथा बौद्ध चेतना के प्रचारक
उनके अंदर बचपन से नेतृत्व करने की क्षमता थी अपने सेवा के दौरान अनेक तरह की सामाजिक कुरीतियों से लड़ने के बाद उन्होने दलित समाज के उत्थान के लिए अम्बेडकरवादी तथा बौद्ध चेतना का प्रचार-प्रसार किया और लोगों को शिक्षा का महत्व समझाया। वे कहते थे कि “गरीबी में पैदा होना उतनी बुरी बात नहीं जितना गरीबी में मर जाना।”
जातिसूचक शब्द कहने पर बीडीओ को सबक सिखाया
उनके निडरता के किस्से बचपन से ही सुनने को मिलते हैं नौकरी के दौरान हीं एक BDO द्वारा जातिसूचक अभद्र व्यवहार पर उन्होंने उसे दौडा-दौडाकर पीटा था ऐसे और कई किस्से हुये। जमींदार,अधिकारी, नेताओं के बीच इनकी ईमानदार और निडर रवैया चर्चा का विषय बना हुआ था।
क्रांतिकारी व्यक्तित्व
भ्रष्ट लोगों के लिए भय का नाम हो गया कामरेड रामकृत सिंह। पोस्टिंग के वक्त ही प्रखंड विकास पदाधिकारी और अन्य कर्मचारीगण सहम जाते थे। इस चक्कर में वो तीन बार (1992-93) जेल भी जा चुके हैं। अंततः अनेकों विभागीय-प्रशासनिक कार्यवाही के बाद 29 फरवरी 1996 में 37 वर्षीय सेवा के उपरांत सेवानिवृत हो गये।
कई लोग मानते हैं आदर्श
इनकी शिक्षा तथा नैतिकता से प्रभावित और अपना आदर्श मानने वाले प्रमुख लोगों में श्री किशुन राम(सेवानिवृत शिक्षक), श्री वीरभगत सिंह(सिनियर एडवोकेट,इलाहाबाद हाईकोर्ट), राधेश्याम सिंह(सिनिर लेक्चरर, किसान इंटर कालेज), तथा अन्य। आज भी लोग अपनी सफलता का श्रेय इन्हें हीं देते हैं। इनके अजीज मित्रों में नौघरा के स्व.रामसूरत राम(जिला जज),स्व. लालमुनी चौबे(केन्द्रीय मंत्री), अमेरिका के पीटर बाबु(प्रोफेसर,शिकागो विश्वविद्यालय) जगरियां के स्व. जयदेव सिंह (जमींदार, मुखिया), अमांव के स्व.रामअधार सिंह(प्रखंड प्रमुख), इंसिया के स्व. रामसूरत सिंह(मुखिया तथा पटेल कालेज के भूमिदाता), नुआंव के स्व.लक्ष्मन खरवार(प्रखंड प्रमुख), का० रामबचन कुशवाहा(मुखिया सह प्रखंड प्रमुख), तथा अन्य।
ईमानदारी के मिशाल
एक दफा बडे़ भावुक होकर कहते हैं कि जब मैं दुनिया से चला जाउंगा तो अपने समाज परिवार के लिए धरोहर स्वरुप सिर्फ “ईमानदारी” छोड़ जाउंगा क्योंकि मैंने सिर्फ यही कमाया है धन सदा मेरे लिए गौण रहा। बेइमानी से धन-संचयन के संबंध में इनका एक प्रसिद्ध कथन है कि “पूत कपूत त क्यों धन संचे, पूत सपूत त क्यों धन संचे” अर्थात् अगर बेटा कुपुत्र है तो उसके लिये धन संचय क्यों किया जाय, वो तो उसे गलत कामों मे उडा देगा और अगर पूत सपूत है तब भी धन क्यों संचय किया जाय वो तो स्वयं अपनी काबलियत से आप से अधिक कमा सकेगा ।